रविवार, 6 मार्च 2016

रंग आलता



रंग आलता
वो रंग आलता कहां से लाउं
जो पांव की उंगलियों से एडी तक बिछ
मन का पोर पोर ललछौंह कर दे
कही निकले
तो लोग लगनी कहे

वह उत्सव कहां से लाउं
जिसकी डाल पर जीवन मौसम और रिश्ते खिले
जो जोड दे दिलों को, वह धरती कहां से लाउं
जिस पर जगह हो प्यार सी

जूतों के देश में
वो पांव कहां से लाउं
जिसके मन में बसा हो रंग आलता
बची हो रंगे जाने की चाहत

मोरनी



मोरनी
रंगीन दुपट्टे का
एक छोर सिर से बंधा
दूसरा छोर कमर से लगा

पीछे पंख की तरह
हवा में लहरा रहा है दुपट्टा
जैसे मुंह खोल कह रहा हो,घास दो
दरवाजे पर भूखी है गाय

घास काट्ती हुई औरत
इस तरह रेगती है
इस तरह मारती है खुर्पी की चोंच
जैसे कोई मोरनी दाना चुग रही हो

और इस तरह रखा घास
जैसे खुजला रही हो पंख Top of FormTop of Form

दियारे की लड़की



दियारे की लड़की

माटी में
थोड़ी सी धूप मिलाकर
बनी हो तुम

मुंह अंधेरे
चुड़ियां बजा कर
जब रात को विदा देती हो
पृथ्वी-
सद्य सुहागन बनी तुम्हारे आंचल में
हल्दी और दूब का टूसा रख देती है
चुपचाप

पीपल के नवजात पत्ते-सी कोमल
सुकन्ये
तुम्हारा तन
किसी गाय का दूध भरा थन है
काले घने लंबे
इन बालों में
ज़रूर लगाया होगा तुमने
बरोह-बट वृक्ष का

घूप का समुद्र
तुम्हें अपनी फेनिल तरंगों से नहलाता है
हवा
गति की हज़ार कंघियों से तुम्हारे केश संवारती है
तुम्हारे तन से
पसीने की शक्ल में हज़ार हज़ार होकर
नदियां फूटती हैं

घर से
खेत अमराई की निरंतर यात्रा में
मीठी-तीखी धुन सी बजती हुई
तुम्हे पता भी नहीं चलता
कैसे बीत गया यह लंबा दिन
और कब
रात नें
आसमान की थाली में सितारे परोस दिए

अल्यूमूनियम की कटोरी में सरसो का तेल लिए
पिता के बुढ़ापे की थकान
उंगलियां चटखा कर निकालते हुए
तुम
उन बूढ़ी आंखों को पढ़ती हो
जिनमें अंखुआ नही पाई
तुम्हारी हल्दी की गांठ

इस बूढ़े पिता के लिए तुम पहाड़ी सफर हो वन्ये
जिससे गुजरते मोच खा गए हैं
सपनों के पांव
तभी
रोजी कमाते
कंडे थापते
अपनी सांस के हर महीन धागे का इस्तेमाल कर
अपना भविष्य बुनती हुई
उस पेट से लड़ती हो
जिसे हर सुबह थापकर
शाम
बिथरा देती है

जब कभी
असहाय सा बूढ़ा मौत को मां की तरह पुकारता है
तुम बरगद हो जाती हो छितनार
चोट खाए सपनों को
अपनी शाखों पर झुलाती हुई जताया करती हो
कि तुम गंगा के तटवर्ती उन गांवों की लड़की हो
जो छह साल की उम्र से, खेतों में साग खोंटकर
बिनिया कर
घर चलाती है और पेट के बल
पार कर जाती है धार की चौड़ी नदी

तुम गंगा के तटवर्ती उन गांवों की लड़की हो
जहां पांव खजूर हो जाते हैं
हाथ बबूल
तब भी खड़ी रहती हो खेतों में
ताकि बचा रहे पौधों में रस
और लकड़ियों में आग

तुम गंगा के तटवर्ती उन गांवों की लड़की हो
जहां सूरज आंखों से उगता है
पांव-पाव दोपहर चढ़ती है
और थकान के साथ
शाम उनींदी हो कर
बैलों के गर्दन की घंटी की तरह बज उठती है

तुम घर के आंवे में पकी हो सरले
तुम्हारे भीतर पगलाई नदियों का प्रवाह है
मिठास है कुंलवासी टिकारे की
और तुम इस दुनिया के दुध-मुंहे को
उतावली लता-सी प्यार करती हो

कल ही
जब धूप तुम्हारे आंचल के फटे छोर से
चोरी चोरी झांक रही थी
हवा नें चुपके से तुम्हारा आंचल खींच लिया था
सच कहता हूं-
सांप लोट गए थे अमराइयों के सीने पर
ऐसे में पृथ्वी ने खुद थमाया था तुम्हें
तुम्हारा आंचल
वरना आसमान भी झुकने लगा था

और तुम भी अजीब थी सांवली
साड़ी संभालती दुहरी हो गई थी
लाजवंती के पौध-सी
सुबह के आकाश का सारा सिंदूर तुम्हारे चेहरे पर
फैल गया था
और तुम्हारे शोख कदम कुछ ऐसे बढ़े थे
जैसे कोई नवगंछुली उमस के बाद
मेघ मना रही हो

अन्नपूर्णा



अन्नपूर्णा

जरा मदद करो बाबू
घंटे भर से खड़ी हूं यहां
और फटी साड़ी का बीठा बनाने लगी
जैसे पूरा यकीन हो कि उठाऊंगा ही

कविता-
ऐसे ही तीव्र करती है जीवन प्रसंगों को
इतनी-सी मदद ज़रूर करनी चाहिए मुझे
इस औरत की
मैंने खुद से कहा था

नंगे पांव
गेहूं के इस खेत से पहाड़ ले जाएगी
यह औरत, कोस भर
सोचकर
मैंने पूरी नज़र से देखा था

चार हथेलियां पेंदे में झुकी
चार पांवों ने प्रतिबल लिया पृथ्वी से
ठीक समय सिर झुकाया उसने
ठीक जगह टेका
मत्था-
इतना तक तो ठीक ही ठीक था
फितूर अवा को समा गया एकाएक
धूल उड़ी
और नाचती हुई रुक गई मेरी आंखों में
मेरे हाथ कमज़ोर पड़े, पांव मुड़े और मैं
चारो खाने चित्त्

दूसरे पल उसकी आंखें चमकीं
और सूरज को नचाकर फेंका उसने
उसके आंचल में नरम हो गई धूप
हवा नम
उसने हाथ पकड़ मुझे उठाया

महीना था चैत का, धूप तेज थी
सचमुच की तेज
हवा कभी धीमे- कभी तेज चल रही थी
इससे पहले कि कोई और बवंडर उठे मैं
विदा हो गया था पसीने से लस्स
आंखें मलते

अगले दिन
उसके अगले दिन और उसके अगले दिन भी
मैं जानबूझ कर गया था, चैत के उसी खेत में
न तो सांवली औरत मिली
न बोझ
वहां एक गाय-
फसल कटने के बाद हरी दू ब चर रही थी
एक चिड़िया के चोच दानों से भरे थे
मेरे लिए तो यह भी बहुत था