रविवार, 6 मार्च 2016

सिया के राम

सिया के राम
बैठा हूं धरती की अनंत गहराइयों में
मेरे सामने हरी साडी पहने
घुटनों में मुंह छुपाए बैठी है सीता
री सिया,बोल ना कैसे थे तेरे राम
किस काल को याद करे सीता
जब लोग अग्नि की पूजा करते थे
जब सीता को जलाने के लिए हुआ इस्तेमान
माता देह पिता विदेह मिले हर काल में
माता के पक्ष में पहली बार उठ खडी हुई सीता
यह काल नया था और उस काल के पास था
जब अग्नि की पूजा होती थी
चुनौती मिली थी जनक से
लडकी होने की
शिव का धनुष उठा दिखा दिया
मां सुनयना की आंख भर आई, उठी कसक
अपनी कोख से जनम क्यो न दे सकी तुझे
तू सुनयना की नहीं धरती की बेटी है
आंचल के भीतर जुड गए हाथ
देख कर मुस्कराए जब परम ज्ञानी जनक,
मन में आया, बस ऎसे हो मेरे राम
हर बेटी पिता में पति का चेहरा तलाश करती है
पिता सी गलतियों को माफ़ करती है
वहीं शर्म,वहीं संकोच
और वही गर्व
और वही टिकी थी नजर राम की
पुष्प वाटिका में मजाक चल रहा था,
हंस कर पूछा था सीता ने-शर्त और स्वयंवर एक साथ
राम, धनुष मैं भी तोड सकती हूं
राम जानते थे
मर्यादाओं को तोडना है सिया का काम
कितनी हलचल हुइ महल में, दशरथ की बहू
जंगल जाएगी, कितना मचा था महल में कुहराम
यह कोई नहीं बता सकता
दशरथ की मौत
राम के वियोग में हुई थी
या सीता के घर से बाहर
पांव निकलने की लज्जा में
औरत ही क्यों शापित होती है अहल्या
पूछा था तो झुकी थी निगाह राम की
खबर मिली
हनुमान से खबर भिजवाया था जनक को
भरत को, गिड गिडा कर कहा था
लेकर आ जाओ सेना,
डर इतना
खौफ़ इतना रावण का कि नही आया कोई
राज्याभिषेक के बाद नहीं रखना रिश्ता
उसकी जिद्द थी,
तनी थी राम की आंख,यही वह जगह थी
जहां राम अलग थे, सीता अलग थी
अंतत: पुरूष ही निकले राम
बैठा हूं
धरती की अनंत गहराइयों में
देखता हूं नई मर्यादाओं के मिट्टी के घडे में
सीता एक बार फ़िर अंकुरित हो रही है
एक नया जनक चाहिए उसे

उसे चाहिए एक नया राम

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