रविवार, 6 मार्च 2016

धूल धूसरित अप्सरा



धूल धूसरित अप्सरा

दिखने में धूल धूसरित
काया काठी अप्सरा जैसी, मेरे सामने की
सीट पर बैठी थी लोकल में, यह सुख था मेरा
जब चाहता देख लेता

धूपिया रंग 
दूर दूर तक फ़ैले सागर में
गोल और भूरे पत्थर सी उभरी थी
उसकी आंखे जिसमे भरी थी बेपनाह मोहब्बत
पुतलियों के जल में हर पल दिखाई देते थे दो बच्चे
जिन्हें अपनी मां के पास छोड कर आई थी


प्याज के गांठ की तरह
अपनी परतो मे कस कस कर रची
ईख के गांठ सी तनी,बोलने मे जरा तुतलाती थी,
पता चला पांच हजार में बांग्ला देश के दलाल
पहुंचा देंगे मुंबई
तो बकरियां बेच दी,बेच दिए गहने
हुए बस तीन हजार

मन कडा कर फ़ैसला लिया
तीन सौ में किया सीमा पार,
आई कटिहार,
एक हजार में मुंबई पहुच गई
उसे मालूम था,वतन कलकता कहना था उसे
और सिरसा मुसलमान यानी वंशज शेरशाह का



मीरा रोड उसकी मंजिल थी
सब कुछ ठीक था
मगर बोरीवली के ठीक पहले काला पड गया उसका रंग,
आंखों के कोर से लुढकी एक सूखी नदी
बेआवाज होठ हिले पर कुछ नहीं कह पाई वह

एक बार बात करने के बाद
दलाल का नियम तोडने की सजा जानती थी
मगर चाहत थी सात पहले बिछडे पति से मिलने की
मन नही माना

दलाल के संग
कैसे आ गई मुंबई की पुलिस
कैसे आया दो मुल्को का कानून, बताया ,दिखाया,
उसी धूल धूसरित अप्सरा ने
जो अपने पति की तलाश मे बांग्ला देश के
किसी गांव से मुम्बई आई थी,
लोकल में मिली थी।

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