रविवार, 6 मार्च 2016

एक रपट कविता




त्रिपुरा में सामूहिक बलात्कार
(खोवाई शहर से १५ कि मी दूर उजान मैदान में असम राईफ़ल्स की दरिंदगी का नंगा नाच हुआ जिसके शिकार झूम की खेती करने वाले ४२ परिवार हुए- इस समाचार की प्रतिक्रिया में)

त्रिपुरा के बसन्त बाग में
असम राईफ़ल्स की स्याह कारनामे
आदिवासी औरतों की खातिर
विष वृक्ष बन कर खडे है

जिन्हे नमक और किरासन के सिवा
कुछ नही चाहिए, उन घरों मे धीमी हो रही है
दिए की लौ, उनकी गलियों में गश्त लगा रहे है
बारूद के गोदाम और व्यवस्था
नुकीले कांच की तरह टूटकर चुभ रही है

वे सारे करेले नीम पर चढ रहे है
जिनकी नजरों में औरत
हड्डी और चमडे की कोशिका भित्ति से ढकी
नरम मुलायम घास है, संविधान के रेत क्षेत्र के
परजीवी सूत्रधार की गूंज रही है आवाज
औरते झूठ बोल रही है

बलात्कार
अमानवीयता और नृशंसता का वह चरम है
जो सिर्फ़ औरत पर होते है
बलात्कार
एक शब्द नहीं है सिर्फ़

बलात्कार
एक घटना नहीं है सिर्फ़

यह एक आग है
जिससे निकलने के बाद
मार दी जाती है औरत और ऎसे मे
देश की सुरक्षा पंक्ति की सबसे अगली कतार में
जब काला नजर आता है
तो व्यवस्था का चेहरा बदल जाता है

मैं दिखाना चाहता हूं
वे चेहरे जिन पर दहशत के धब्बे
छूट गए है चेचक की तरह

वे आंखे
जिन्हें बलात्कार ने समुद्र बना दिया है

वे ध्वनियां जिनकी कंपकपी
समय की सबसे मुखर कविता है






विद्यालक्ष्मी

उन चीतों की
काम कुल्हाडी की नजर
जिस पौध पर थी
वह मैं थी

३१ मई थी
दुपहरी भी थी, आंधी भी थी
कट के गिरी और उडी

१८ की मेरी उम्र थी
ले गई मुझे इतनी दूर
जहां से सुश्री विद्या लक्षमी बनकर
नही लौट सकती मै

शुम लक्षमी देव वर्मा

वे आए जैसे बाढ आती है
वे आए जैसे आग लगती है
वे आए जैसे आती है मौत

चमके विजली की तरह
गरजे काले बादल की तरह
बरस गए
मेरे देह भाग पर

दो जून थी तारीख
जब कपडा ठुंसे मुंह लिए
देखती रही पति का पिटना
देखती रही दुधमुंहे का विलखना

देखती रही
असम राईफ़ल्स की काम बाढ मे
खुद का डूबना

राधिका

खेत के कोने में
एक नदी थी

नदी में
एक अदद मछली
शीत ताप से बेखबर
चारा ढूंढ रही थी

सरकारी पंख वाले
बगुलो की नीयत औरत खोर थी
उनका चारा मै थी

राधिका २
राह रोके खडे थे
गेंहूवन
फ़न काढे

फ़न पर मुहर थी
सरकारी खडाऊं की, लपलपा
रही थी जिह्वा की तरह
वासना की कलमुंही नियत

पहला हंसा
दूसरे ने डंसा
यह कब तक दुहराई गई
मुझे नहीं पता

वनस्पति
पूछ लो
पूछ लो मेरे चेहरे से
मेरी व्यथा

देख लो
देख लो मेरी आंखों में
पूरी घटना

अगर लाज
गहना है औरत का
तो वो लुट चुका है

मैं औरत हूं
त्रिपुरा के आदिवासी गाव की
अब चुप नहीं रहूंगी

हवा
मेरी कहानी के साथ समाना सांस मे
मेरी चीख हर कान में दस्तक देगी
बन सके पताका ,इस लिए छोड दिया मैने
साडी पहनना

पार्वती
रसोई घर मे
चुल्हा जल रहा था

जवानो की काम कडाही में
तेल मिर्च के संग
मैं ही पक रही थी

पंच लक्षमी
पांचवी में पढती हूं
मेरी उम्र १२ साल है

मुझे देख मेरे गूंगे मेरे मां पिता
रोते है, बारिश की तरह आंसू
उनकी आखो से गिरते है

जिस आदमी की
अजीबो गरीब हरकतो ने
मुझे तमाशा बना दिया
पापा का हम उम्र था

मुझे कुछ नही पता
मुझे क्या हुआ है

इन बयानों को
आपकी अदालत में पेश करते हुए
देश के नक्शे पर दिल्ली, असम विहार
या किसी एक जगह उंगली उठाना नही है
न ही मर्सिया गाना है वरन साफ़ साफ़ कहना है
कि बलत्कारी सिर्फ़ वे ही नहीं होते
जो औरत के जिस्म से
गाली की तरह पेश आते है
वे उनका सहयोग करते है जो
इन वारदातों पर
आह भर कर चुप हो जाते है

औरत
अनचलुए सिक्के की तरह
अबोध बच्चों से कमर से बंधी
गुजर जाती है

औरत
किसी पुराने कुंवे मे
पीतल की बाल्टी की तरह
रस्सी के छोर से खुलकर
डूब जाती है

औरत
किसी पुराने दरख्त की तरह
आंधी में गिर कर टूट जाती है
नही
यह बीते दौर की बात है

त्रिपुरा के
आदिवासी इलाके की औरते
जो अपने छोटे छोटे पावों से
जैसे जंगल मापती है
जैसे पीठ पर बच्चे पालती है
बलात्कार के विरूद्ध बयान देने लगी है
बलात्कार के विरूद्ध आवाज देने लगी है

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