रविवार, 6 मार्च 2016

कहीं अंत नहीं होता



कहीं अंत नहीं होता

 

आज की रात जा चंदा

बहार ले जा

कमबख्त तारों को

 

भाई बन जा मेघा

आ तेरी कलाइयों में बांध दूं 

फूल बिजली का

आ तेरे ललाट पर लगा दूं

टीका कसम का

आ कि तुझे न्योछावर कर दूं

अपना सारा गुस्सा

 

सावन में भाई से अधिक

कौन समझेगा बहना का दुख

 

जितना तेज कड़क सके

तेरी बिजलियां कड़कें

उमड़-घुमड़ अंबाझोर बरसे तेरी बदलियां

कि भर जाय घर-आंगन ,चूने लगे छप्पर..

गली से  बह निकले नदी..

 

खाट उठाकर भागते उस कसाई पति पर

जिसने मडाई कर अलग किया है देह का दाना

बज्र बनकर गिरो

ओ मेरे बीरन

और धो दो

बहना की मांग का सिन्दूर

मैं भूल चुकी हूं सातो वचन  

 

सखी की बात मान जा चंदा

और जा

औरत का दुःख

और आसमान की दौड़ का

कहीं अंत नहीं होता

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