रविवार, 6 मार्च 2016

पपीता



पपीता

 

दूध के दरख्त पर

टंगे

कच्चे ऒर अधपके पपीतों के बीच
अकेली पकी हो तुम

रूग्णता नहीं है तुम्हारे चेहरे पर
अतिरक्तिम छाया से बच कर निकला
रंग है तुम्हारा
तुम्हारे भीतर छिपी है
मैदानी इलाके की सोंधी गंध

रूको
अनुमान करने दो मुझे
कि कैसी रही होगी तुम पकने के पहले
और कैसी हो जाऒगी पकने के बाद
कमाल है कि तुम
कहीं नहीं दिखी कच्च हरी या पिल पिल
क्या खूब पकी हो तुम

तुम्हारे स्वाद में है धरती की अघाई हुई डकार
तुम्हारे स्पर्श पर टिका है असाध्य रोगों का प्रतिकार
उन विचारों की त्वचा हो तुम
जिनके कारण गोल है पृथ्वी

रूको
देख लेने दो तुम्हारे पके होने का हर एक पल
गंध ऒर मिठास में घुल जाने दो
काला बीज बन उतर जाने दो
ऒ मेरी पृथ्वी
जरा धीरज धरो

तुम्हारे पपीते के भीतर पपीता होकर
जन्म ले सकूं
बस इतना समय दो

पपीते के पत्ते पंख हैं मेरे
मेरी आत्मा का रंग है
पपीता के पकने का रंग

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