रविवार, 6 मार्च 2016

शबरी के पिता



शबरी के पिता

 

पिता के आने की खबर सुन

कुछ नहीं कह पाई

शबरी

और आंख भर आई

 

लोटा में पानी ले आई..

मल मल धोया गिलास

पीतल के थाल में धोएगी पांव..उतार देगी

छ्ह कोस पैदल की थकान..यह क्या कम है कि

इस उम्र में चल कर आए पिता

 

जूते की आहट से जान लेती थी शबरी

कि पिता आ रहे हैं..

आज भी जान लेगी कि पार

कर गए है घर का चौखट

बरामदा

इस घर में है उनकी बेटी

परदे पर कढे फ़ूल से समझ जाएंगे

 

देर हुई तो थाल में पानी बदल दिया

ग्लास में लगी थी मिट्टी जरा सी कहीं
मल मल साफ़ किया

बिस्तरा झाडा.

बक्से पर कपडा डाला

और कुछ न बचा करने को तो रो पडी

 

कैसी हो बेटी..

कैसे कट रहे हैं दिन

कहने को तो कह हीं देगी शबरी

ठीक..बिलकुल ठीक..कौन बेटी चाहेगी

कि बेटी का हाल जान

दुखी हो पिता

 

लोटा फ़ूटहा था

बूंद बूंद रिस गई शबरी

झन्न से बजी पीतल की थाल

चकरघिन्नी की तरह घूम गया आकाश

और बचपन से जवान होने तक की

तमाम यादो को

एक मोटर सायकिल रौंदती चली गई

जिसे नहीं दे सके थे पिता

तय करने के बाद 

 

जरूर कांप रहे होंगे

जाते हुए ,

पिता के गठिया वाले पांव

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