रविवार, 6 मार्च 2016

लाजवन्ती



लाजवन्ती

तुमसे क्या छीन गया लाजवन्ती
मुझसे छिनी है मेरी मासूमियत

तुम्हारे डैने ,
तुम्हारे पत्ते
छूने पर जिस नाज में सिकुडते थे
वही तो ताकत थी तेरी

लडकियां
तुमसे शरमाना सीखती थी
घंटो निहारते थे तुम्हे लोग
तुम्हे यह भी नही रहा याद
कि तुम्हारे बल पर खडी थी
सबसे कोमल अभिब्यक्ति

इतनी बडी धरती,
इतना बडा आसमान
जंगल पहाड और इतने इतने पौधों के बीच
बोल,हम किसे जाकर कहे-छूई मुई

मुझसे मासूमियत छिन गई
तुझसे छूई मुई पन
हाय रे दुश्मन
आदमी के भी, धरती के भी।

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