रविवार, 6 मार्च 2016

कईली



कईली

पता नहीं क्या था
कि सर्र से निकल भागना चाहती थी
कईली

मैंने तो
यूं ही पूछ लिया घबराई देखा तो
कि क्यों, क्या बात है कईली
और छूट गया हाथ कटोरा
फर्श पर
चवल -दाल के संग ऑखे भी गड़ गई थी
काठ होती गई पल- पल

मेरी ऑखो में तैर गया बिन बाप का बच्चा
मैंने ही मना किया था, साथ मत लाना शरारती को

इस तरह गुजरता गया जाने कितना समय
उसने ठूंस लिया मुंह में ऑचल

एकाएक सजल पलकें ऊपर क्या उठीं
थ्गरी क्या एक बूंद
सारा बात्सल्य टॉक दिया मेरी ऑखो में
जाते- जाते भिगो गयी मुझे मेतियों वाली बारिश

मैं भी तो नही कह पाया
घबराती काहे हो कईली
आना
फिर भी आना काम पर
इतना सा अन्न तो धरती भी चुरा लेती है
मैं भी ऐसे ही लौटता हूं दफ्तर से
रोज-रोज...

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