रविवार, 6 मार्च 2016

करमजली



करमजली

 

सुनो

मुझे गांव से निकल जाने दो

 

कहीं जो दीख गई

वह डायन,

तो न हो सकेगा जाना

विष की तरह चढ़ता है उसका टोकना

 

कलपती है...

गाय की तरह हंकरती है

चिड़ियां-चुरंग को रूला देती है

कमबख्त

 

जाने कैसे सूंघ लेती है

गांव से

किसी के शहर जाने की खबर

और बाढ की तरह घेरती है

 

लेट जाती है पांव के पास

पेट के बल

भईया

कहीं जो दिखे मेरा जगना

कहना , मां ने बुलाया है

जरूर कहना कि उसी के लिए टंगी है

गांव में बुढिया की सांस

 

बीस साल पहले

कमाने के लिए शहर गया था

उसका गबरू जवान बेटा जगना

लौटकर नहीं आया....

 

बीस साल में

जाने कितने लोग गए गांव से

और लौट कर नहीं आए

जाने कितने घरों की दीवार में उगे पीपल

और जाने कितने घरों के ताले जंग ने खोले

और दरवाजे दीमकों ने

 

जब चल रही हो ऎसी अंधड़

तो कौन बताए

 

कहां उड़ा...

कहां गिरा....

कौन से पेंड का पत्ता

 

कहां गला....

कहां बहा....

कौन से खेत का ढेला

 

करमजली को

गांव हीं नजर आता हैं यह अगम-संसार ।

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